सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, ञायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि अट्ठपुरिसपुग्गला एस भगवतो सावकसङ्घो, आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्सा 'ति ।


दी. नि. २.७३, महापरिनिब्बानसुत्तं


सुमार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक संघ, ऋजु मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक संघ, न्याय (सत्य) मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक संघ, उचित मार्ग पर चलने वाला है भगवान का श्रावक संघ, यह जो (मार्ग-फल प्राप्त आर्य) व्यक्तियों के चार जोड़े हैं याने आठ पुरुष - पुद्गल हैं - यही भगवान का श्रावक संघ है, (यही) आवाहन करने योग्य है, पाहुना बनाने (आतिथ्य) योग्य है, दक्षिणा देने योग्य है, अंजलि-बद्ध (प्रणाम) किये जाने योग्य है । लोगों का यही श्रेष्ठतम पुण्य क्षेत्र है

हम अपनी पारमिता बढ़ाने के लिए भिक्षुओं को निन्मलिखित आवश्यक चीजें दान कर सकते हैं :-


  • * भिक्षुओं के कपड़े
  • * दवाइयाँ
  • * दैनिक उपयोग की वस्तुए
  • * विहार हेतु आवश्यक सामग्री

हमें निकट के बुद्ध विहार में निवासरत भिक्षुओं के भोजन हेतु खुद जाकर या लोगों के समूह के साथ भोजन दान अथवा अपनी इच्छानुसार एक निश्चित राशि का दान करने से महाफल मिलता हैl आम तौर पर भिक्षु आशीर्वाद और धम्म शिक्षा देते हैं और जब भी हम दान करते हैं तो सभी प्राणियों के साथ गुण साझा करते हैl


!! भवतु सब्ब मंङ्गलं !!

जिसे देकर मन निर्मल हो।

अवश्य! विवेक साथ न हो तो दानी का मन मैला हो ही जाता है। अविवेकी का दान उसके बंधन का कारण बनता है, वैसे ही जैसे कि अविवेकी की श्रद्धा, जैसे कि अविवेकी का प्रेम।

विवेक न हो तो दान देने की शुद्ध धर्म चेतना जाग ही नहीं सकती। ऐसा व्यक्ति दान दे भी तो दुर्मन से देता है। उसका मन अहंकार से, चिड़चिड़ाहट से, घृणा से, ईर्ष्या से, लोभ से अथवा भय से भरा होता है। ऐसा दान अच्छा फल कैसे दे सकता है भला? दुर्मन का फल तो दुःखद ही होगा, सुखद नहीं। विवेक हो तो दान को निष्काम बनाए रखेगा। सकाम भक्ति और सकाम प्रेम की तरह उसे सकाम बनाकर कलुषित नहीं होने देगा। उसकी पवित्रता नष्ट नहीं होने देगा।

यदि दान का उद्देश्य यश हो, कीर्ति हो, कोई लौकिक प्रतिफल हो, किसी देवलोक की कामना हो तो ऐसा राग-रंजित दान बांधने वाला ही होता है। परंतु अपने इस कुशल कर्म को, त्याग और अपरिग्रह का रूप देकर आस्रव (विकार/गंदगी/बार बार जन्म-मरण के भवसंसरण में डालने वाले कर्म-संस्कार)–क्षय (समाप्त करना) का हेतु बना लेगा तो बांधनेवाला कदापि नहीं होगा।

विवेकवान के लिए दान का पुण्य कर्म आस्रव-क्षय और निर्वाण का प्रत्यय ही होता है क्योंकि वह अपरिग्रह के लिए होता है, बोझ हल्का करने के लिए होता है, बोझ बांधने के लिए नहीं। हां, यह ठीक है कि शुद्ध अपरिग्रह बुद्धि से दिया हुआ दान लोकोत्तर निर्वाण की ओर ले जाने वाला होने के साथ-साथ लोकीय लाभ भी पहुँचाता ही है। वैसे ही जैसे धान की खेती करें तो चावल के साथ-साथ चारे के लिए भूसा और डंठल भी प्राप्त होते ही हैं। चीनी की फैक्ट्री चलाएं तो चीनी के साथ-साथ मोलासिस [राब] पैदा होता ही है। इसी प्रकार शुद्ध दान भी समस्त मानवी और दैवी संपत्तियां देते हुए ही नैर्वाणिक संपत्ति उपलब्ध करवाता है।

निरभिमान मन से, मैत्री करुणायुक्त चित्त से और अपरिग्रह बुद्धि से दिया गया दान निर्वाणगामी उत्तर धर्मों के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि तैयार करता है। शुद्ध दान के दोनों लाभ हैं - लोकीय भी और लोकोत्तर भी। विवेकशील दानी अपने दान के इन दोनों पक्षों को भलीभांति समझता है। दान देने के पूर्व वह प्रज्ञापूर्वक सोचता है, समझता है कि मुझे दान देना क्यों आवश्यक है? और भली-भांति सोच-समझकर दान देता है तो स्वच्छ-सुमन चित्त से ही दान देता है। सुमन का फल स्वतः सुखद ही होता है - लोकीय भी, लोकोत्तर भी।

विवेकशील व्यक्ति जब अपने चारों ओर अभावग्रस्त प्राणियों को देखता है तो जो कुछ पास हो, उसका कुछ हिस्सा उन प्राणियों को बांटकर ही शेष का उपभोग करता है। प्राणियों में भी यदि मनुष्य अभावग्रस्त हो तो उसकी आवश्यकता पूरी कर अपने को अधिक धन्य मानता है। वह इस सच्चाई को समझता है कि अपने पास जो कुछ है उसे अकेले ही उपभोग करना धर्म-नीति के विरुद्ध आचरण है। यदि अपने पास कम है तो भी उसमें का भले थोड़ा सा ही हिस्सा सही, अन्य किसी को देकर शेष को ही ग्रहण करना धर्म है और जब अपने पास आवश्कता से अधिक हो तब तो बिना बांटे स्वयं ही उसका उपभोग करना घोर पाप है। ऐसे उपभोग में अपना ही अमंगल है, पराभव है, पतन है।

जिसके पास प्रभूत मात्रा में धन-संपत्ति हो, हिरण्य-सुवर्ण हो, भोज्य-पदार्थ हो और वह अकेला ही उनका उपभोग करे तो यह अवस्था उसके पतन का कारण बनती है। विवेकशील व्यक्ति इस बुराई से बचता है, इस पतन से बचता है। विवेकशील व्यक्ति भलीभांति समझता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समूह में रहने वाला प्राणी है। अतः मुझे औरों के साथ रहना होगा। मैं औरों से तो अनेक प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त करता रहता हूं, परंतु बदले में औरों की सुख-सुविधा के लिए अपना दायित्व निभाता हूं या नहीं? यदि मेरे पास कुछ और आवश्यकता से अधिक है तो उसे औरों को बांटकर ही अपना दायित्व निभा पाऊंगा। विवेकशील व्यक्ति यह समझता है दान अपरिग्रह के लिए है। किसी एक के पास अधिक जमा हो जाय तो बाकियों को उसका अभाव भुगतना ही पड़ता है। अतः समय-समय पर अपरिग्रह बुद्धि से, कर्तव्य बुद्धि से और बिना अहंकार के अपने पास संचित संपदा को औरों में बांटते रहना चाहिए ताकि समाज में विषमता न बढ़े और परिणामतः विग्रह-विद्वेष न बढ़े। दान द्वारा भारग्रस्त व्यक्ति भारमुक्त होता है और अभावग्रस्त अभावमुक्त ।

दान जरूरतमंद को ही दिया जाना चाहिए। परंतु जरूरतमंदों में भी दान के लिए योग्य पात्र चुना जाता है। विवेकशील व्यक्ति जानता है कि जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज महाफलदायी होता है। वैसे ही उर्वरा क्षेत्र में बोया हुआ दान का बीज भी महाफलदायी होता है।

वह जानता है कि जो खेत असम हो, जिसमें बहुत तृण उगे हों, झाड़-झंखाड़ उगे हों, जिसमें बहुत कंकड़-पत्थर हों, जिसमें जुताई नहीं हुई हो, जो बहुत चट्टानी हो जिसमें पानी आने का रास्ता न हो, जिसमें से पानी बाहर निकलने का रास्ता न हो, जिसमें न नाली हो, न मेड़ हो, ऐसे ऊसर खेत में बोया हुआ बीज महाफलदायी नहीं होता। इसी प्रकार जिस व्यक्ति की वाणी शुद्ध न हो, जिसके शारीरिक कर्म शुद्ध न हों, जिसकी आजीविका शुद्ध न हो, जिसके प्रयत्न-प्रयास शुद्ध न हों, जिसकी स्मृति शुद्ध न हो, जिसकी समाधि शुद्ध न हो, जिसका चिंतन-मनन शुद्ध न हो, जिसकी दर्शन-दृष्टि शुद्ध न हो, ऐसे दुर्जन, दुःशील, दुराचारी, दुःसमाधिस्थ और दुष्प्रज्ञ व्यक्ति को दिया हुआ दान महाफलदायी नहीं हो सकता।

जो खेत समतल हो, झाड़-झखाड़-तृण विहीन हो, कंकड़-पत्थर विहीन हो, जो चट्टानी नहीं हो, जिसमें गहरी जुताई हुई हो, जिसमें पानी लाने का रास्ता हो, जिसमें से पानी निकालने का रास्ता हो, जिसमें आवश्यक नाली हो, मेड़ें हों, वैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज सचमुच महाफलदायी होता है। ठीक इसी प्रकार जिस व्यक्ति की वाणी शुद्ध हो, शारीरिक कर्म शुद्ध हों, आजीविका शुद्ध हो, प्रयत्न-प्रयास शुद्ध हों, स्मृति शुद्ध हो, समाधि शुद्ध हो, चिंतन-मनन शुद्ध हो, दर्शन-दृष्टि शुद्ध हो, ऐसे सज्जन, सुशील, सदाचारी, सुसमाहित चित्त, सप्रज्ञ व्यक्ति को दिया हुआ दान सचमुच महाफलदायी होता है।

ऐसा व्यक्ति चाहे जिस जाति, कुल, वर्ण, वर्ग, संप्रदाय का हो, परंतु वह हर माने में श्रमण ही है, पवित्र ही है, पावन ही है। ऐसा व्यक्ति धर्म-पथ का पथिक है। अतः दान का बीज बोने के लिए सचमुच उपजाऊ पुण्य-क्षेत्र है।

विवेकशील दानी इस बात को समझता है कि धर्मवान व्यक्ति मानव समाज की अनमोल निधि है। धर्मवान व्यक्ति स्वयं तो सुख-शांति का जीवन जीता ही है, औरों की सुख-शांति का भी कारण बनता है, औरों को भी धर्मवान बनने के लिए प्रेरित करता है, मार्गदर्शन देता है। इसलिए जो जितना-जितना धर्मवान है, वह समाज के लिए उतना ही उपयोगी है, कल्याणकारी है अतः उतना ही अधिक पूजन-वंदन योग्य है, आदर-सत्कार योग्य है, दान-दक्षिणा योग्य है।

जिस समाज में शील-गुण-संपन्न धार्मिक व्यक्तियों की अवहेलना व अवमानना होने लगे और शील-गुण-विहीन व्यक्तियों का जाति, कुल, गोत्र, धन, सत्ता आदि के नाम पर मान-सम्मान होने लगे, उस समाज में धर्म का अवमूल्यन होने लगता है। परिणामतः वह समाज धर्म-विमुख होने लगता है, उस समाज में न्याय-नैतिकता का ह्रास होने लगता है। उस समाज के लोग मिथ्याभिमान के शिकार होने लगते हैं और अपने पतन के स्वयं कारण बनने लगते हैं।

विवेकवान व्यक्ति समझता है कि वह जब किसी धर्मनिष्ठ व्यक्ति को दान देता है तो उसका मन श्रद्धाभाव से, दाक्षिण्यभाव से भर उठता है और ऐसी अवस्था में वह यही महसूस करता है कि इस धर्मनिष्ठ व्यक्ति ने मेरा दान स्वीकार कर मुझपर अनुग्रह ही किया है। दूसरी ओर जब वह किसी धर्म-विहीन व्यक्ति को दान देता है तब अपने मिथ्या अहं का पोषण करता हुआ यही महसूस करता है कि दान देकर मैं इस व्यक्ति पर अनुग्रह कर रहा हूं। धर्महीन व्यक्ति की अपेक्षा धर्मनिष्ठ व्यक्ति को दान देते हुए चित्त की चेतना अधिक निर्मल रहती है और इसीलिए अधिक फलदायी होती है।

विवेकवान व्यक्ति यह भी समझता है कि व्यक्ति से समाज बड़ा है। व्यष्टि से समष्टि महान है। अतः किसी एक व्यक्ति विशेष की दान-सेवा की तुलना में सार्वजनीन दान सेवा और अधिक फलदायी होती है। एक व्यक्ति चाहे वह परम ज्ञानी सम्यक संबुद्ध ही क्यों न हो, उसके मुकाबले व्यक्तियों के समूह को यानी संघ को दिया गया दान अधिक फलदायी होता है। और संघ भी यदि धर्म-विहारियों का संघ हो, संतों का संघ हो, साधकों का संघ हो तो कहना ही क्या! दान का बीज बोने के लिए उससे अच्छा कोई क्षेत्र होता ही नहीं। वह अनुत्तर पुण्य क्षेत्र होता है।

विवेकशील व्यक्ति इस बात को बखूबी समझता है कि कालिक दान यानी अवसर पर दिया गया दान कल्याणकारी होता है। जैसे कि दुष्काल के समय, अग्निकांड के समय, बाढ़ के समय, महामारी के समय पीड़ितों को दिया गया दान। भूखे को भोजन का दान, नंगे को बस्त्र का दान, रोगी को औषधि का दान, बेघरबार को घरबार का दान फलदायी दान है।

कालिक दानों से भी अधिक उत्तम अकालिक दान है, सार्वकालिक दान है और वह है धर्मदान जो कि सर्वदा सर्वहितकारी दान है।

धम्मदानं सब्ब दानं जिनाति ।

किसी को धर्म का दान देने का अर्थ यह नहीं कि उसे किसी संप्रदाय विशेष में दीक्षित कर लिया जाय। सार्वकालिक, सार्वदेशिक धर्म सदा सार्वजनीन ही होता है। वह किसी संप्रदाय के क्षुद्र दायरे में बांधा नहीं जा सकता। अतः धर्म का दान किसी संप्रदाय में लपेटने के लिए नहीं, बल्कि संप्रदाय के घेरे से ऊंचा उठाकर शील, समाधि और प्रज्ञा में स्थापित करने के लिए होता है। लोगों को जाति, कुल, गोत्र, धन, सत्ता आदि के संकुचित दायरों से बाहर निकाल कर शुद्ध धर्म की महत्ता के क्षेत्र में स्थापित करने के लिए होता है। समाज में शील, समाधि और प्रज्ञा को प्रतिष्ठापित करने के लिए होता है।

कोई व्यक्ति शीलवान न हो तो उसे शील में स्थापित करने में, कोई शीलवान हो पर समाधिवान न हो तो उसे समाधि में स्थापित करने में; कोई शीलवान हो, समाधिवान हो पर प्रज्ञवान न हो तो उसे प्रज्ञा में स्थापित करने में; उसे विमुक्ति रस का रसास्वादन करवाने में, निर्वाण का साक्षात्कार करवाने में सहायक होना ही सही माने में धर्मदान है, जो कि सब के लिए समान रूप से सर्वदा कल्याणकारी है।

धर्मदान का प्रारंभ पुस्तकों द्वारा या प्रवचनों द्वारा धर्म का संदेश लोगों तक पहुंचाना होता है। ताकि इससे उनमें धर्म के प्रति आकर्षण जागे, धर्म धारण करने के लिए प्रेरणा जागे और उससे मार्गदर्शन मिले। श्रुत धर्म का, परियत्ति धर्म का यह दान लाभदायक होता है । पर इससे भी उन्नत और विशुद्ध धर्मदान तो धर्म-धारण करने का अभ्यास करवाना है। इससे जन-जन का वास्तविक और स्थायी लाभ होता है। यह दान जब किसी एक व्यक्ति व एक वर्ग के लिए न होकर सार्वजनीन हो तो सर्वोत्तम फलदायी होता है। धर्मदान में तन, मन, धन से सहयोगी होना, धर्मदान में भागीदार बनना है।

विवेकवान व्यक्ति जानता है कि यदि मैं धर्म सिखा सकने की क्षमता नहीं रखता तो धर्म प्रशिक्षण के काम में सहयोगी बनकर ही सेवालाभ ले सकता हूं, अपना धर्मदान संपन्न कर सकता हूं। यह समझकर ही वह धर्मदान में सहयोगी बनता है। धर्म सीखने वालों के लिए भोजन निवास तथा अन्य आवश्यक सुविधाएं प्राप्त करवाने में योगदान देता हुआ शुद्ध धर्मदान में सहभागी बनता है। साधकों के लिए भोजन का दान, ध्यान-कुटी का दान, धर्मदान ही है।

विवेकवान व्यक्ति यह भी समझता है कि सभी दानों से भी कहीं अधिक फलदायी है- स्वयं धर्म में स्थित होना, स्वयं शील, समाधि और प्रज्ञा में स्थापित होना, स्वयं अध्यात्म की ओर अग्रसर होना। कहीं दान को ही सब कुछ मानकर अध्यात्म की अगली मंजिलें हासिल करने में अपने लिए दीवारें न खड़ी कर ले। दान धर्म का पहला कदम है, आवश्यक कदम है, पर अंतिम कदम नहीं है। यह ठीक है कि यदि इस पहले कदम में ही कमजोरी रहेगी तो अगले कदम मजबूत नहीं हो सकेंगे। यह समझकर समझदार आदमी, जिसे धर्म-पथ पर चलना है, जिसे धर्म का सुख-शांतिमय जीवन जीना है, जिसे धर्म की अंतिम मंजिल तक पहुँचना है, वह दान को अपने जीवन का आवश्यक अंग बनाता हैं, अनिवार्य अंग बनाता है और साथ ही साथ शील, समाधि, प्रज्ञा में उत्तरोत्तर पुष्ट हुए जाता है।

दान को जीवन का आवश्यक अंग बनाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आय में से अपनी सुविधा के अनुसार, अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ हिस्सा शुद्ध दान के लिए अवश्य निकाले। जिसकी आय कम है वह कम निकाल कर जरा भी हीन भाव का अनुभव न करे। चित्त की शुद्ध दान - चेतना ही फलदायी होती है, दान का परिमाण नहीं। जो समर्थ हैं वे अपनी दान-चेतना को संकुचित कर उसे कलुषित न कर लें। उदारचित्त से परंतु साथ ही साथ दंभहीन चित्त से दान देना सीखें।

वहीं जहां के प्रति अपनी धर्मप्रज्ञा उत्साहित करे। जहां के लिए मन में दान-चेतना जागे, पर दें अवश्य। जो गृहत्यागी हैं वे बहुजन हिताय बहुजन सुखाय शुद्ध निरामिष धर्मदान दे सकने की क्षमता प्राप्त करने में अग्रसर होते रहें और जो क्षमतावान हैं वे शुद्ध धर्मदान देते रहें। शुद्ध सात्त्विक दान साधक के चित्त का आभूषण है, चित्त का अलंकरण है, चित्त का हल्कापन है। दान-चेतना जाग्रत रख कर अपने चित्त को धर्म-विभूषित करें, उसे मंगलमार्गी बनाएं।

आइये दान के बारे में जाने